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एंटरटेनमेंट

'गुल्लक' से निकल पड़ती है खनकती यादें, बीते दौर में आम परिवारों की कहानियां…

वैसे तो वेब सीरीज गुल्लक के बारे में कहा जा सकता है कि इस पर क्या लिखना. हंसी-खुशी और मजा लेने वाली सीरीज है, लेकिन लिखना बनता है. उसकी वजह भी यही है कि ये सीरीज ऑडिएंस के चेहरे पर मुस्कान ले आने में सफल हो जाती है. देखते-देखते किसी भी संजीदा आदमी के होठों के कोने पर मुस्कान तैर जाती है. हालांकि, पूरी गुल्लक सीरीज ही उस पीढ़ी की यादों की कहानी है, जो रोजमर्रे के काम-काज में बस दौड़ता ही रहा है.

1990 और 2000 के बाद पैदा हुए लोगों ने वो दुनिया तभी देखी होगी जब वे कस्बाई या छोटे शहरों में रहते होंगे. फ्लैटों में रह रहे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रही पीढ़ी को ये सब देखने को नहीं मिला होगा. ये उनसे एक पीढ़ी पहले वालों की यादों की गुल्लक है. मोबाइल गेम में उंगलियों से वक्त को भगा रही पीढ़ी को शायद ये पता न हो कि पड़ोसी को ये अख्तियार होता था कि वो कभी भी बगल वाले घर में दाखिल हो सकता है.

संतोष मिश्र – जमील खान
शांति मिश्रा- गीतांजली कुलकर्णी
अन्नू- वैभव राज गुप्ता
अमन- हर्ष
राइटर- विदित त्रिपाठी

उसे दरवाजा खटखटाने की भी दरकार नहीं होती थी, जिस समय को कहानी में बिना साल लिखे दिखाया गया है वो ऐसा ही था.पड़ोसी पूरी ईर्ष्या के साथ पड़ोसी के घर का हिस्सा ही रहता था. उसके बिना न तो खुशी होती थी, न ही गम. बगल के घर की सजावट की तारीफ तो की जाती थी लेकिन मन में जलन की आरी चल रही होती थी.

बेटों के पास मां-बाप को बताने के लिए मोहल्ले भर की रेजगारी जैसी खबरें होती ही थी. व्हाट्सऐप ग्रुप में आने वाली तमाम गुड मार्निंग, गुड नाइट और हैप्पी संडे जैसे संदेशों से ज्यादा. उन बातों पर मां-बाप की प्रतिक्रिया से बच्चों का चरित्र और संस्कार तय होता था. इसके लिए अलग से न तो स्कूल में कोई पाठ पढ़ाया जाता न ही मां-बाप को अलग से कुछ सीखाना पड़ता था. रोजमर्रे के जीवन में मां-बाप के फैसलों से ही ये तय हो जाता था. क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए.

चौथे सीजन में अन्नू को टीन एज से नवजवानी की दहलीज में घुसते देखना रुचा हो. हालांकि अन्नू की एक्टिंग थोड़ी और बेहतर होती तो ज्यादा मजेदार होता. फिर भी भी जल्दी से कूद कर बड़े भाई की उम्र में पहुंचने की उनकी तमन्ना में बहुत कुछ सामने आ जाता है. वेब सीरीज के इन कड़ियों में कमंट्री ने भी अपना असर छोड़ा है. हालांकि फिल्मों या कहा जाय ऑडियो विजुअल मीडियम में कमेंट्री का इस्तेमाल कम ही किया जाता है.

नाटकों में तो सूत्राधार की व्यवस्था होती है, लेकिन माना जाता है कि फिल्मकार अपने सीन्स और डॉयलॉग से पूरी चीज सामने ला देगा. तो इसी कमेंट्री में बार बार जिस मिडिल क्लास का जिक्र किया गया है उसकी स्थिति को अन्नू के जरिए दिखाने की अच्छी कोशिश की गई है. पॉकेट खर्च पूरा करने के लिए उसे गुल्लक से पैसे निकालने और फिर ऑलमारी से पैसे उड़ाने तक के विचार आते हैं. उसका भोलापन भी दिखाने में फिल्मकार सफल रहा है. बानगी के तौर पर जब निर्जला एकादशी से पुरखों के नरक से मुक्ति की बात होती है तो अन्नू तपाक से पूछ पड़ते हैं – “तो क्या हमारे पुरखे अभी तक नरक में थे?.”

बड़ा हो रहा छोटा बेटा आखिरकार कबाड़ी से कमीशन का जुगाड़ करता है. कबाड़ बेचने वाली कड़ी तो गुल्लक की बेशकीमती सिक्का साबित होती है. घर से कबाड़ निकाल पाना साधारण घरों के लिए बहुत मुश्किल होता है. फिर मिश्रा जैसा परिवार हो तो और भी मुश्किल. बहरहाल, बड़ा बेटा जिम्मेदार हो चुका है. जिम्मेदारी उठाने के लिए उसे जिन परेशानियों से दो चार होना पड़ता है, वो आज के दौर में बहुत आम है. लेकिन तिकड़मी कानपुरिया उसकी काट निकाल लेता है और ये देखना काफी मजेदार होता है.

कहानी बढ़ती है और पुरानी पीढ़ी यानी संतोष मिश्रा के हत्थे चढ़ जाता है अन्नू का लिखा प्रेम पत्र. लव लेटर उन्होंने क्यों लिखा ये जानना भी मजेदार है. बहरहाल, बेटे का प्रेम पत्र मिल जाना ऐसे परिवार में बेहद संगीन जुर्म माना जाता रहा है. इसमें कान के बाप का एक रापटा नीचे पड़ ही जाता है. अन्नू का घर से भागना, फिर बड़े भाई का उन्हें पकड़ कर लाना दर्शकों को जमता है. इनमें से बहुत सारी बातें दौर के साथ गुम सी हो गई हैं.

बहाना चाहे, शहरों के विस्तार का हो, फ्लैट क्लचर का कहा जाय या फिर मोबाइल का शरीर के साथ आत्मा तक में प्रवेश कर जाने का हो, लेकिन सच यही है कि अब से दो तीन दशक पहले तक जिंदगी ऐसी ही थी. टीवी के आ जाने के बाद भी. हां, जब टीवी की शुरुआत हुई थी, उस समय दूरदर्शन से इस तरह के कई सीरीयल आते रहे जो पूरे परिवार के साथ बैठकर देखे जा सकते थे. गुल्लक भी एक ऐसी ही सीरीज है. अलबत्ता इसके शुरुआती एपीसोड हल्के जरूर दिखते हैं.

Tags: Entertainment, Web Series

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